मैं कभी कभी ज़िन्दगी के ATM से कुछ लम्हे withdraw कर लेता हूँ
कभी ये लम्हे करारे नोटों की तरह ज़हन से गुजरते हैं
इतने ताज़े, कि हाथ लगाओ तो ऊँगली कट जाती है
और ये एहसास दिलाती है, कल ही की तो बात थी
और कभी पुराने नोटों की तरह लम्हों के पुलिंदे निकलते हैं
एक दुसरे से चिपके, धुंधले, सहमे हुए से
कईयों के तो नंबर भी मिट जाते हैं
और अक्सर वो खोमचे वाला उन्हें वापिस कर देता है
ये कहकर की साहब नया वाला दो
शायद वो ये जानता है की ताज़े जख्म खुले रहें तो जल्दी भरते हैं
Thursday, 12 January 2012
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