Sunday 24 February 2013

Dakiya

वो दिन के तीसरे पहर खाकी कपडे पहने बाइसिकल पे आता था
 कैनवास का मटमैला बस्ता टाँगे

 हम बच्चे झुण्ड बना कर उसके साथ घर घर जाते
ख़ास कर जोसफ अंकल के घर
उनकी चिट्ठियां अक्सर गल्फ से आती 
और उन पर रंग बिरंगे स्टाम्प लगे होते 
कभी कभी मांगने पर जोसफ अंकल स्टाम्प निकाल कर दे देते
आज भी किसी पिटारे में पड़े होंगे, बचपन की बाकी यादों के साथ

पापा की इलस्ट्रेटेड वीकली,
मम्मी की सरिता और कादम्बिनी,
हमारी पराग और चम्पक,
स्कूल की किताबों के पार्सल, मार्कशीट्स, एडमिशन के फॉर्म्स सब वोही लाता
और दिवाली की बख्शीश की लिस्ट पर सबसे पहला नाम उसका होता

कभी वो बेवक्त भी आता,
और उस दिन बच्चे उसके साथ नहीं भागते
हम जानते थे किसी का तार आया है

आज हम अपार्टमेंट्स में रहते हैं
ग्राउंड फ्लोर की सीढ़ियों के पीछे हमारे नाम का एक डब्बा है
और उस डब्बे में कोई हमारी डाक डाल जाता है
कौन है पता नहीं, कभी देखा नहीं
यहाँ तक की दिवाली की बख्शीश की लिस्ट में उसका नाम भी नहीं है

मेरे बच्चों ने कभी डाकिया नहीं देखा
वो ईमेल किया करते हैं
कहते हैं ईमेल से ख़बरें बहुत जल्द पहुँचती हैं
वाक्या हुआ नहीं, खबर पहले

पर शायद ख़बरों की इस रेस में संदेसों का अपनापन कहीं खो गया है
डाकिये की बख्शीश की तरह