जो मिलता है पूछता है "कहाँ से हो"
प्रश्नचिन्ह से नदी के मोड़ के बीच सिमटा हुआ एक छोटा सा शहर था
बांस का जंगल, बेर के झाड, पीपल के पेड़
होली, ईद, दिवाली और चार बीहू
बरसात की बाढ़ में केले के तने जोड़ कर नाव बनाते थे
और पूरे साल के ईंधन की लकड़ी चुन लाते थे
सुना है आज वहां बांस से कई गुना ऊंची इमारतें हैं
बाढ़ का पानी अब शायद शहर में नहीं आता
लोग लकड़ी नहीं सरकारी दामों पे केरोसीन और गैस जलाते हैं
और शहर के होली वाले हिस्से में अब बीहू नहीं मनाया जाता
इससे कुछ बड़ा था अगला पड़ाव
बरसाती नदियाँ, बूढ़े पहाड़ और उनकी वादियों में बसी हुई शांत रिटायर्ड जिंदगी
कुछ अच्छे स्कूल थे और कुछ सरकारी महकमे
शाम के सात बजे यहाँ रात हुआ करती थी
आज वहां शिक्षा का बाज़ार है
हर मोहल्ले में करियर बेचते स्कूल और कॉलेज
और हर गली में इन स्कूल और कालेजों के पेईंग गेस्ट बच्चे
हर मोड़ पे दुनिया की रंगीनियाँ दिखाते साइबर कैफे
इन रंगीनियों को साकार करने की होड़ में आये दिन छुरे चाकू चलते हैं
पर क्या करें, इस महंगाई में लोगों के पेट भी तो पेईंग गेस्ट से पलते हैं
फिर कई शहर बदले, देश बदले
लोगों के चेहरे बदले, वेश बदले
कहते हैं दुनिया छोटी हो गयी है
पर पलट के देखता हूँ तो जाने क्यों सब बहुत दूर दिखता है
शायद इस छोटी दुनिया में पुराना देखने को नया चश्मा लगता है
जहां से आये वो जगह पहचानी नहीं जाती
जहां जाना है उससे पहचान बनानी है
क्या बताएं कहाँ से हैं
अपनी कुछ अजब कहानी है
Thursday, 16 June 2011
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